बुधवार, 15 जुलाई 2009

दीवार की तरफ कुर्सी


मेरे घर की वो सामने वाली बॉलकनी में उन दो कुर्सियों को में सालों से देखती आ रही थी....जहां हर दिन की तरह शाम को दो कुर्सियां लगी होती थी...जिनका रुख आते-जाते उस रास्ते की ओर होता था जहां से पूरी कॉलोनी के लोग आते-जाते नज़र आते थे...जिन्हे देख उस कुर्सी पर बैठे वो दोनों घंटो बतियाते थे...बीच बीच में चाय का कप भी आ जाया करता था...दोनों के बीच दुनिया जहांन की बातें होती ...कभी घर की तो कभी समाज की...कभी दोनों चुप हो जाया करते...लेकिन बावजूद इसके उन दोनों की खामोशी में भी संवाद जारी रहता ...एक-दूसरे का एहसास होता था...वो दोनों चुप रह कर भी कितनी बातें कर जाते थे...लेकिन आज...उन दो कुर्सियों में से एक रह गई है...क्योंकी दूसरी कुर्सी पर बैठने वाला अब इस दुनिया में नहीं है....। अब इस अकेली कुर्सी का रुख भी सड़क की ओर से घूम कर दीवार की ओर हो गया है...जिस पर बैठी वो अकेली अब उन दीवारों पर पता नहीं क्या तका करती है गलती से अगर सड़क की ओर मुहं चला भी जाता है तो जैसे उन राहों पर किसी को नज़र खोजती है ...और ना पा कर फिर उन्ही दीवारों को मुखातिब हो जाती हैं...पता नहीं घंटो वो उस कुर्सी पर बैठी क्या सोचती है...पास पड़ी उस खाली कुर्सी को निहारा करती है....। और फिर उठ कर धीमें कदमों से कमरे का रुख कर लेती हैं....।