सोमवार, 28 सितंबर 2009

आशियाना....

जब मैं बारहवीं में थी तो ज्योग्रफी में मैं भारत के बहुत से घरों और उनकी बनावट के बारे में पढ़ा ...सच में वो बहुत ही चिलचस्प था॥। उस वक्त तक मेरे ज़ेहन में घर रहने के लिए एक जगह मात्र था....। लेकिन कुछ समय बाद जब गानों को सुनने का शौक हुआ तो कुछ गाने दिल के बहुत क़रीब हुए जैसे...ये तेरा घर ये मेरा घर ये घर बहुत हसीं हैं....एक अकेला इस शहर में रात में और दोपहर में आबोदाना ढूंढता है आशियाना ढूंढता है......मेरे घर आना आना जिन्दगी मेरे घर आना॥। दो दीवाने इस शहर में आबोदाना ढूढते है आशियाना ढूंढते हैं....इन गानों में जितना अपनापन है वहीं एक घर को लेकर लगाव और टीस भी है॥। जो मुझे कुछ ज्यादा ही महसूस हो रही है॥ घर इंसान के सबसे बड़े और सबसे अज़ीज़ सपनों में से एक है....। ऑफिस आते वक्त आश्रम चौक से पहले पड़ने वाले फ्लाईओवर पर लगे होर्डिग की ओट में रहने वाले एक शख्स को मैं पिछले डेढ़ साल से देख रही हूं...। होर्डिग के पर्दों से बना ये घर मेरे दिल में जहां घर की एक नई छवी था वहीं उसे देख कर दुख भी होता था....लेकिन अब मेरा ग़म और बढ़ गया है क्योंकि जिस घर में हम पिछले तीन दशक से रह रहे हैं वो अचानक हमें खाली करना है...ऐसा नहीं है की हमें कहीं घर नहीं मिलेगा....लेकिन क्या करे अब तो इस घर से बिछड़ने का ग़म दिल को चीर रहा है...पता नहीं कल तक छोटा लगने वाला घर आज पूरी कायनात का सबसे खुबसूरत जहान हो गया है....वो छत्त जिस पर मेरी बरसाती(छत्त पर बना कमरा) बनी है...कितनी प्यारी हो गई है...बचपन से ही इस छत्त पर घुम घुम के पन्नों को रटना...छत की मुंडेर पर बैठ देर तक डूबते सूरज को देखना...गुलाबी ठंडक में देर शाम तक पढ़ते-पढ़ते अचानक याद आना की अब नीचे जाना है...और फोन पर घंटो दोस्तो के साथ गप्पियाना ....स्कूल जाते वक्त मुड के देर तक अम्मी का देखना...और बच्चों के साथ छत्त पर पतंगबाज़ी करना...। शायद ये यादे अब उस घर में साथ ही जायेंगी जिसे परमानेंट घर माने कब्र माना जाता है ....क्योंकी जीते जी ऐसे एहसासत में लिपटा घर फिर मिलना नामुमकिन है....हम कभी भी इस घर के दरो दीवारों को भूल नहीं पायेगें...क्योंकी ये घर महज़ घर नहीं बल्कि हमारी पूरी कायनात था...।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

दीवार की तरफ कुर्सी


मेरे घर की वो सामने वाली बॉलकनी में उन दो कुर्सियों को में सालों से देखती आ रही थी....जहां हर दिन की तरह शाम को दो कुर्सियां लगी होती थी...जिनका रुख आते-जाते उस रास्ते की ओर होता था जहां से पूरी कॉलोनी के लोग आते-जाते नज़र आते थे...जिन्हे देख उस कुर्सी पर बैठे वो दोनों घंटो बतियाते थे...बीच बीच में चाय का कप भी आ जाया करता था...दोनों के बीच दुनिया जहांन की बातें होती ...कभी घर की तो कभी समाज की...कभी दोनों चुप हो जाया करते...लेकिन बावजूद इसके उन दोनों की खामोशी में भी संवाद जारी रहता ...एक-दूसरे का एहसास होता था...वो दोनों चुप रह कर भी कितनी बातें कर जाते थे...लेकिन आज...उन दो कुर्सियों में से एक रह गई है...क्योंकी दूसरी कुर्सी पर बैठने वाला अब इस दुनिया में नहीं है....। अब इस अकेली कुर्सी का रुख भी सड़क की ओर से घूम कर दीवार की ओर हो गया है...जिस पर बैठी वो अकेली अब उन दीवारों पर पता नहीं क्या तका करती है गलती से अगर सड़क की ओर मुहं चला भी जाता है तो जैसे उन राहों पर किसी को नज़र खोजती है ...और ना पा कर फिर उन्ही दीवारों को मुखातिब हो जाती हैं...पता नहीं घंटो वो उस कुर्सी पर बैठी क्या सोचती है...पास पड़ी उस खाली कुर्सी को निहारा करती है....। और फिर उठ कर धीमें कदमों से कमरे का रुख कर लेती हैं....।

शनिवार, 27 जून 2009

शनि का सदका....
अक्सर सड़क किनारे...यूं ही चौराहे पर॥आप को तेल के डिब्बे दिख जाते होंगे...हो सकता है यू चलते फिरते लोगों में से कुछ उसमें रुपया भी डाल दें॥लेकिन मैं एक ज़माने से उन बच्चों को देखती आ रही हूं .... जो शनिवार का इंतज़ार करते है और इसके आते ही मैले कूचले डिब्बों पर फूल और तेल डाले हर आने जाने वाले के आगे कर देते हैं....कुछ लोग उसमें कुछ डालते रहते हैं...तो कुछ दूर से देख के नज़रे घूमा लेते हैं...क्या है ये ...भीख....या वो डर जिसे शनि का सदका कहते है...मुझे नहीं पता...क्या सच में..तेल तिल या पैसे चढ़ा देने से शनि खुश हो जाते हैं...ये मेरे लिए बहुत बड़ी पहेली है....खैर...मेरे लिए यहां शनि का सदका अहम नहीं है... मेरे लिए वो बच्चे अहम है जो बड़ी हसरत के साथ हर आते जाते का चेहरा निहारते है कि कहीं कोई...इस डिब्बे की तरफ बढ़े और उस डिब्बे में कुछ डाल दे.....लेकिन जहां ये बच्चे उन हाथों को देखते है जो पैसे इस डिब्बे के सुपूर्द करे तो मैं उन हाथों को उस जज़्बे को देखना चाहती हूं जो इन बच्चों का ही शनि उतार दें....शुक्रिया....

मंगलवार, 23 जून 2009

पर्दा है पर्दा...

सरकोज़ी ने नया फरमान जारी किया है...
..पर्दा उतार फैंको...क्योंकि ये आपकी गुलामी का आपकी अति आज्ञाकारिता को दिखाता है...वहीं तालिबान कहते है कि गर बुर्का नहीं पहना तो आप की खैर नहीं.....इस बुर्का पहनने और उतार फैंकने के बीच किसी ने ये जानने की कोशिश की है कि जिसे ये पहनना है वो क्या चाहती हैं....तो जानकारी के लिए बता दूं कि जो मुस्लिम महिलाएं ये पहनती है अगर उनसे ये छिन्न लिया जाये तो शायद बाज़ार में वो दो क़दम भी ना चल पाये....खैर ...क्यों ये पूरी दुनिया जानने और मामने को तैयार नहीं है की ये मुद्दा पूरी तरह से व्यक्तिगत होता है...क्यों ये थोपने की जिद्द है.... फिर वो पहनने को लेकर हो या फिर उतारने को लेकर....इन सब के बीच याद आता है तो बस यही की इस दुनिया में बगैर लिबास आये थे...और जाना भी बगैर लिबास ही है...लेकिन इस सब के बीच किसी को भी ये फिक्र तो नहीं की क्या लेकर आये थे क्या लेकर जाना है चिंता है तो समाज में जीने के लिए बनाये नियम पर चल के जिन्दगी जीने की ...जो कम से कम मेरी समझ से बाहर है....

सोमवार, 8 जून 2009

कलाकार कभी मरते नहीं ...


हबीब तनवीर चले गए....
...एक पत्रकार के तौर पर मेरी हमेशा से ये तमन्ना थी...कि मैं हबीब तनवीर का इंटरव्यूह करू...लेकिन तनवीर के साथ मेरा वो सपना भी चला गया...खुदा उनकी रूह को सुकून और उनको जन्नत नसीब करे...वैसे हबीब तनवीर के बारे में मैं उतना नहीं जानती लेकिन.. हां उनके जितने भी नाटक देखे और पढ़े है...वो बेहद दिल के क़रीब रहे हैं...तनवीर का नाटक आगरा बाज़ार के साथ तो बचपन की यादें भी जुड़ी हैं....आगरा बाज़ार वो नाटक कहीये या धारावाहीक जिसे मैंनें बहुत ही दिलचस्पी से साथ देखा था... उन्होंने एक हिन्दू लड़की से शादी की थी...वैसे वो क्या अपने क्या दूसरे धर्म में उनकी कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी...लेकिन उनका जो धर्म था....वो बहुत ही खूबसूरत था... बहुत ही सच्चा था...वो था एक कलाकार का...एक इंसान का...कहते है इंसान की लेखनी उसके व्यक्तित्व का आइना होता है...और हबीब की अभीव्यक्ति बहुत ही सशक्त थी...उनकी दुनिया से रुखसती पर सब की तरह मैं भी बहुत ग़मगीन हूं लेकिन ....वो हमेशा हमेशा ज़िन्दा रहेंगे ये मैं अच्छी तरह से जानती हूं क्योंकि...कलाकार कभी मरते नहीं....

रविवार, 22 मार्च 2009

गुडी का गुडबॉय.....

जैक गुडी दुनिया से चली गई...
लेकिन आख़िरी सलाम कुछ इस अंदाज़ में कर गई की सब को याद रहेगा...। कैसे कोई अपनी मौत का भी जश्न मना सकता है ये जैक गुडी ने बखूबी कर दिखाया...जो बेशक सबको याद रहेगा...कम से कम मुझे तो हमेशा ही याद रहेगा..सत्ताइस साल की जैक ने शायद अपनी जिन्दगी में वो सब को देखा और किया जो लोग सालों ज़िन्दा रहते है...लेकिन फिर भी सोचते रह जाते है करना है करना और नहीं कर पाते...बहरहाल...गुड़ी जिस अंदाज़ में चर्चा में आई उसके लिए यही कहा जा सकता है...बदनाम भी होंगे तो क्या नाम ना होगा....।
हालांकि जैक की शोहरत का सफर बदनामी से शुरू हुआ था...लेकिन ये बदनामी इतनी नामी में बदल जायेगी ये गुडी ने भी नहीं सोचा होगा....खैर चुलबुली...गुडी ने जिस अंदाज को सब को गुडबॉय किया उसने सबके दिल को छू लिया..। ज्य़ादा कुछ लिखने को नहीं है...बस गुडी गुडबॉय ...और खुदा करे आपको जन्नत नसीब हो....।
शुक्रिया...।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

ख़ुदा के लिए बस करो.....

हद कर दी..गाजा में.... कोई है क्या सुनने वाला.......शायद सब मुर्दा हो चुके है.....कोई नहीं बचा सकता इन लोगों को............किस की शह पर इतना उछल रहा है...इज़राईल....जूता खा चूक बुश साहब अब बातों के नहीं लातों के आदमी हो गए है....वैसे तो हर किसी के फटे में टांग अड़ाने वाले अंकल सैम अब किस गुफा में जा कर छुप गए है...ग़ाज़ा में जिन्दगी रो रही है....पर कोई सुनने वाला नहीं है...छोटे छोटे बच्चों के स्कूल का नामों निशा ख़त्म कर देने वाली मिसाईल को दागा जा रहा है....वो भी ये कह के की हमास के आतंकी स्कूल और मस्जिदों को पनाहगार बनाये हुए है.... मान लीजिए बनाया भी है..तो क्या आप मासूमों की लाश पर चढ़ के उन आतंकीयों को पकड़ना चाहते है...बुरी ....बहुत ही बुरी सोच है ज़्यादा कुछु ना लिख कर बस इतना ही कि...कुछ करो.....कोई तो कुछ करो.....
खुदा हाफिज़.........